धागा
तपन कुमार नायक
मैं तो संपर्क का धागा पकड़ के
भागे दौड़े सबको बोले।
अरे भाई तुम जरा ये धागा पकड़ लो
मैं अकेला थक गया हूँ।
ये धागा तो मेरा नहीं,
आप लोगों ने पकड़ाया दिया है।
आप लोगों ने मेरे हाथों में गाँठ डाल दी
तुम्हें बोला, आपको बोला,
थोड़ा ये गाँठ खोल दो
मैं हाथ हिला नहीं सकता।
मैंने अपने पिता से कहा,
आप ये गाँठ थोड़ा खींचिए।
वो हंस पड़े और बोले, गाँठ तो हमने डाला,
फिर क्यों खोलूँ।
ये धागा तो हाथ से लेकर पैरों तक पड़ी है।
अरे भाई कोई तो मदद करो
कोई तो मुझे खोल दो।
मैंने तुम्हारी सुनी, आप लोगों की सुनी
आप सब बोले। खड़े हो जाओ
मैं खड़ा हो गया।
आप सबने कहा दौड़ पड़ो
मैं दौड़ पड़ा।
और मेरा पैर टूट गया,
माथा फट गया,
दिल भी कमजोर हो गया।
आप लोगों के लिए रातों जागा
दिन में भी भागा,
तुम्हारे लिए कमाय
करोड़ों रुपया लाता हो गया।
पता नहीं कब मैं जिन्दा लाश बन गया
मेरे दोस्तों, ये धागा खोल दो ना
मैं छँट-पट होता रहा तुम्हारे लिए,
तो प्यार-प्यार करते जंजीर में जकड़ता ही गया।
ये धागा भी ले लो, यही सारे दुःखों का कारण है,
पतला सा धागा, निकलता ही नहीं।
ये धागा माँ ने दी,
इसको लेकर मुझे श्मशान जाना ही पड़ेगा,
मैं जलूँगा ये धागा भी जल जाएगा।
ସେଇ “ମା”


धागा: जीवन के संबंध, दायित्व और सामाजिक बंधन
गाँठ: इन बंधनों की जटिलता और उलझन
जलना: आत्मबलिदान और मुक्ति की चाह
माँ का धागा: जन्म से मिला नैसर्गिक कर्तव्य और स्नेह का बंधन
यह कविता मनुष्य की आत्मा की उस पुकार को उजागर करती है जो प्रेम और कर्तव्य के बीच फँसकर थक चुकी है — वह मुक्ति चाहती है, पर बंधन उसे नहीं छोड़ते।
ତପନ କୁମାର ନାୟକଙ୍କ “ଧାଗା” କବିତାଟି ଗଭୀର ଅନୁଭବ, ସତ୍ୟ ସମ୍ବେଦନା ଓ ଜୀବନର ଦାୟିତ୍ୱମୟ ବନ୍ଧନକୁ ସୁନ୍ଦର ପ୍ରତୀକରେ ଚିତ୍ରିତ କରିଛି। କବିଙ୍କ ସହଜ ଭାଷାରେ କଥା କହିବା ଶୈଳୀ ପାଠକଙ୍କ ହୃଦୟକୁ ସ୍ପର୍ଶ କରେ।
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